बहुत कुरेदने पर बमुश्किल पिघले मीरगंज विधायक डॉ. डी.सी. वर्मा और फिर खोलकर रख दिए सारे छुपे राज़
बोले-रबड़ फैक्ट्री की बची 1170 एकड़ जमीन पर कोर्ट से उप्र सरकार को मालिकाना हक दिलवाकर मीरगंज इलाके की चहुंमुखी प्रगति के द्वार खुलवाने के लिए हूं प्रयासरत
दावा-वर्ष 2017 में मैंने ही पहली बार विधानसभा में उठाया था रबड़ फैक्ट्री के सैकड़ों विस्थापित कर्मचारियों का मुद्दा, तब से लगातार सदन और शासन को झकझोरता रहा हूं
‘फ्रंट न्यूज नेटवर्क’ के लिए सच को उजागर करती सीनियर जर्नलिस्ट गणेश ‘पथिक’ की एक और एक्सक्लूसिव & स्पेशल रिपोर्ट
एफएनएन नेटवर्क, बरेली। 119, मीरगंज विधानसभा से वर्ष 2022 में लगातार दूसरी बार पूरे बरेली जिले में सर्वाधिक और रिकॉर्ड वोटों से जीतकर आए विधायक डॉ. डीसी वर्मा वर्ष 2017 में शुरू हुई अपनी नई राजनीतिक पारी के साथ ही रबड़ फैक्ट्री की बेशकीमती जमीन पर सरकार को मालिकाना हक वापस दिलवाकर इस फिसड्डी इलाके की चौमुखी तरक्की के द्वार खुलवाने के लिए संघर्षरत हैं। हालांकि वे लगातार जारी अपने संघर्ष की बाबत काफी कुरेदने पर भी सहज ही पत्ते खोलने को राजी नहीं होते हैं।
काफी मान-मनौव्वल के बाद आखिरकार डीसी मुंह खोलने को राजी हुए। बोले-20 साल से बंद पड़ी लगभग तीन दशक बरेली की शान रही रबड़ फैक्ट्री यानी सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लिमिटेड और विस्थापित हुए इसके 1432 स्थायी कर्मचारियों की अझेल सामाजिक-मानसिक यातनाओं का मुद्दा हमेशा से ही मेरे दिल ये बहुत करीब रहा है। वर्ष 2017 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद एक दिन रहपुरा रोड पर अपने कॉलेज के पास कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बस यूं ही टहल रहा था, तभी नायब तहसीलदार मीरगंज को कानूनगो, हलका लेखपाल और आभिजात्य वर्ग के कुछ साहब लोगों के साथ खाली पड़ी जमीन की पैमाइश करवाते देखा तो जाहिराना तौर पर कुछ शक हुआ। बाद में गहराई से तहकीकात कराने पर मालूम हुआ कि उच्च कुलीन दिखने वाले साहब लोग दरअसल अलकेमिस्ट प्रा. लि. के लोग थे और मीरगंज तहसील की राजस्व विभाग की टीम के मार्फत रबड़ फैक्ट्री की जमीन पर अपने कथित रजिस्टर्ड बयनामे के आधार पर कब्जा लेने के मकसद से आए थे।
डीसी बताते हैं, पहली बार गहरी साजिश का अहसास होने पर इस संबंध में और भी बारीकी से पड़ताल करवाई तो सच्चाई जानकर मैं वाकई सन्न रह गया। बकौल डीसी, मैं पहला विधायक था जिसने वर्ष 2017 में पहली बार उप्र विधानसभा के पटल पर डेढ़ दशक पहले अघोषित रूप से अचानक बंद की गई रबड़ फैक्ट्री और इसके 1432 स्थायी तथा पांच हजार से भी ज्यादा अस्थायी कामगारों के विस्थापन, उनके सभी लंबित अवशेष देयों और जमीन पर सरकार के मालिकाना हक के मुद्दे को वर्ष 2017 में पहली बार उप्र विधानसभा के पटल पर अकाट्य तथ्यों और पुख्ता प्रमाणों के साथ जोरदार ढंग से उठाया था और बाद में भी इस ज्वलंत सवाल को लेकर सदन, सरकार और शीर्ष शासन-प्रशासन तंत्र का ध्यान समय-समय पर आकर्षित करता ही रहा हूं।
ज्ञात रहे कि 15 जुलाई 1999 को मालिकान ने एशिया की चंद सबसे बड़ी कृत्रिम रबड़ उत्पादन इकाइयों में से एक रबड़ फैक्ट्री या सिंथेटिक्स एंड केमिकल्स लि. के सभी 1432 स्थायी कर्मचारियों को अनिश्चिचकालीन सवैतनिक अवकाश पर जबरन घर भेजते हुए फैक्ट्री में ‘अघोषित तालाबंदी’ कर दी थी। अचानक पक्की नौकरी छूटने के बाद डेढ़ दशक लंबे कालखंड में भयावह बेकारी, भुखमरी, तंगहाली के भौतिक और मानसिक संत्रास झेलते हुए फैक्ट्री के 600 से ज्यादा कामगारों की गरीबी, बीमारी और अन्य कारणों से असमय मौतें हो गईं। 14 कर्मचारी भयंकर मानसिक संताप झेल नहीं पाए और आत्म हत्या जैसा कठोर कदम उठाकर बीवी-बच्चों को अनाथ छोड़ गए।
विधायक डॉ. डीसी वर्मा के सजग-सतर्क रुख और सरकारी शासकीय तंत्र को निरंतर झकझोरकर जगाते रहने की उनकी कोशिशों का सुखद परिणाम तब सामने आया, जब 2019 में पहली बार प्रदेश सरकार को अपनी गंभीर चूक का अहसास हुआ और रबड़ फैक्ट्री प्रकरण में मुंबई हाईकोर्ट में विधिवत् पक्षकार बनने का बहुत बड़ा और निर्णायक कदम उठाया। इससे पहले तो भयंकर राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता का आलम यह था कि 18 वर्षों के लंबे कालखंड तक घोषित रूप से ‘सवैतनिक अवकाश’ पर चले आ रहे सभी 1432 स्थायी कर्मचारियों के हक की आवाज उठाने के बारे में भी कभी सोचा तक नहीं गया था। बहुत से श्रमिक और उनके आश्रित आज भी भयावह गरीबी, बेरोजगारी और घनघोर आर्थिक संकट का दंश झेलते रहने को अभिशप्त हैं। अब फैक्ट्री कैंपस भयानक जंगल की शक्ल ले चुका है। कुछ साल पहले तो छह माह से भी अधिक समय तक मादा बाघ (Tigress) रबड़ फैक्ट्री के बीहड़ जंगल में डेरा डाले रही थी। उत्तराखंड और लखनऊ से आए वन्य पशु विशेषज्ञों की टीम ने इस मादा बाघ को बमुश्किल ट्रैंकुलाइज कर पिंजड़े में बंद कर सुरक्षित दरदराज के एक राष्ट्रीय पशु उद्यान (नेशनल पार्क) में भेज दिया था।
इसे भयानक विडम्बना ही कहेंगे कि अशोक मिश्रा (महासचिव) के नेतृत्व वाली एस एंड सी कर्मचारी यूनियन समेत रबड़ फैक्ट्री की सभी पंजीकृत श्रमिक यूनियनों की एकजुट आवाज कोर्ट और उप श्रमायुक्त न्यायालय से लगातार उनके हक में फैसले आने के बावजूद तत्कालीन राज्य सरकारों की घनघोर उपेक्षापूर्ण नीति के चलते नक्कारखाने में तुरही की महीन आवाज की तरह लगातार गुम ही होती रही है। डीसी के दावे पर यकीन करें तो विधानसभा और प्रदेश तथा केंद्र सरकार के समक्ष जब भी उन्हें मौके मिले, पूरी बेबाकी और बुलंद अंदाज में इस मुद्दे को असरदार ढंग से उछालते ही रहे।
डीसी बताते हैं-तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और आठ बार बरेली के सांसद रहे संतोष गंगवार की तगड़ी पैरवी और वर्षों की निरंतर कोशिशों और अटूट संघर्ष का ही नतीजा यह रहा कि रबड़ फैक्ट्री के सभी 1432 स्थायी श्रमिकों/आश्रितों को बकाया प्राविंडेंट फंड (पीएफ) की रकम वर्षों पहले ही मिल चुकी है। इधर, सरकार और खासकर मुख्यमत्री योगी आदित्यनाथ के बेहद सधे हुए और सकारात्मक रुख और मुंबई हाईकोर्ट द्वारा अलकेमिस्ट के दावे को खारिज कर दिए जाने के बड़े फैसले से बाद दो दशक से भारी तंगहाली झेलते आ रहे हजारों विस्थापित परिवारों के मुरझाए चेहरों पर सरकार के कब्जे में आने वाली रबड़ फैक्ट्री की जमीन पर जल्दी ही सिडकुल और बड़ी फैक्टरियां खुलने और रोजगार-नौकरी में उनके आश्रितों को वरीयता मिलने की बहुत बड़ी खुशखबरी आने की आशा-विश्वास भरी मुस्कुराहट भी खिल उठी है।
इतना ही नहीं, उप्र सरकार के मुंबई हाईकोर्ट और डीआरटी में पहली बार बाकायदा पक्षकार बनने के अलकेमिस्ट के दावे का सच बाहर आ गया और नए तथ्यों एवं पुख्ता, अकाट्य सुबूतों के प्रकाश में मुंबई हाईकोर्ट को अलकैमिस्ट के पक्ष में दिए अपने ही पुराने फैसले को पलटते हुए रबड़ फैक्ट्री की 1170 एकड़ बची हुई जमीन पर अलकैमिस्ट के दावे को दिसंबर 2023 में खारिज करना पड़ा।
अब मुंबई हाईकोर्ट और ऋण वसूली न्यायाधिकरण (मुंबई) में उप्र सरकार की पैरवी कर रहे काबिल वकीलों ने उप्र सरकार और उप्र औद्योगिक विकास निगम (यूपीसीडा) से रबड़ फैक्ट्री की जमीन पर सरकार का मालिकाना हक साबित करने वाली प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल, डीएम बरेली और फैक्ट्री मालिक तुलसीदास किलाचंद के संयुक्त हस्ताक्षरों वाली उपनिबंधन कार्यालय मीरगंज में रजिस्टर्ड वह सेलडीड, जिसमें पूरी 1370 एकड़ जमीन किसी भी वजह से छह माह या अधिक समय तक फैक्ट्री बंद रहने पर सरकार को मूल खरीद मूल्य 3.40 लाख रुपये में ही लौटाने की अनिवार्य बाध्यता या शर्त है, और अन्य सभी जरूरी दस्तावेज और प्रमाण भी तत्काल उपलब्ध कराने का आग्रह किया है और सरकारी तंत्र सभी जरूरी दस्तावेज इकट्ठे कर दोनों वकीलों को भिजवाने की तैयारियों में भी जुट गया है। संबंधित दोनों वरिष्ठ अधिवक्ता सभी जरूरी दस्तावेज मिलने पर जनवरी माह के अंत तक उप्र सरकार की ओर से मुंबई हाईकोर्ट और ऋण वसूली न्याधिकरण में जमीन के मालिकाना हक के अलग-अलग दावे ठोंक देने की पूरी तैयारियों में भी जुट गए हैं। बताते चलें कि रबड़ फैक्ट्री ही की 200 एकड़ जमीन कुछ दशक पहले बीएसएफ प्रशिक्षण केंद्र को और 9.3 एकड़ जमीन हाईवे निर्माण को दी जा चुकी है।
एस एंड सी कर्मचारी यूनियन के महासचिव और शुरुआत से ही विस्थापित कर्मचारियों के हकूक की लड़ाई लड़ते आ रहे अशोक मिश्रा बताते हैं कि मीरगंज विधायक डॉ. डीसी वर्मा के साथ ही वर्तमान सांसद छत्रपाल सिंह गंगवार और बरेली के सभी वि घास कोंच मंत्रियों का रवैया इस मुद्दे पर पॉजिटिव ही रहा है।
प्रदेश के मुख्य सचिव मनोज कुमार सिंह से कुछ माह पहले हुई दोनों मुलाकातें जहां फैक्ट्री की जमीन पर दुबारा सरकार के स्वामित्व और सभी पात्र कर्मचारियों को समस्त लंबित देयों का यथाशीघ्र भुगतान कराने को लेकर काफी उत्साहवर्धक रही हैं, वहीं वन एवं पर्यावरण मंत्री और शहर विधायक डॉ.अरुण कुमार भी अति शीघ्र प्रभावी कार्रवाई का भरोसा दिलाते रहे हैं।
अब शासन की अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार द्वारा केंद्र-प्रदेश सरकारों को भेजे गए सभी पत्र और अब तक की सभी वांछित जानकारियां और अद्यतन ब्यौरा वन एवं पर्यावरण मंत्री के मार्फत प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और मुख्य सचिव समेत अन्य शीर्ष अधिकारियों को भी भेजा है। यूपी में उद्योगों को रफ्तार देने के मिशन में जुटे सीएम योगी आदित्यनाथ खुद भी रबड़ फैक्ट्री के मुद्दे पर शुरू से ही काफी गंभीर रहे हैं।
रबड़ फैक्ट्री की जमीन पर मालिकाना हक, इंडस्ट्रियल हब और सभी कर्मचारियों के लंबित देयों का जल्द भुगतान है हमारी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता
“रबड़ फैक्ट्री की बची हुई पूरी 1170 एकड़ जमीन पर उप्र सरकार को मुंबई हाईकोर्ट और ऋण वसूली न्याधिकरण (डीआरटी) के सकारात्मक फैसलों से जल्दी ही मालिकाना हक मिल सके, इसके लिए हम शासन स्तर पर पिछले काफी समय से लगातार पैरवी करते रहे हैं। प्रदेश सरकार के अधिकारियों का रुख भी पूरी तरह पॉजिटिव और प्रोफेशनल ही रहा है। हमारी पूरी कोशिश है कि जमीन सरकार के स्वामित्व में आने के बाद इस क्षेत्र को इंडस्ट्रियल हब के रूप में विकसित किया जाए ताकि नए रोजगार-नौकरियों का सृजन हो और इलाके के चहुंमुखी विकास को गति मिल सके। इसके सभी रबड़ फैक्ट्री के सभी पात्र कर्मचारियों के उनके सभी देयों का जल्द से जल्द पूरा भुगतान करवाना भी हमारी सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में एक है।”-डॉ. अरुण कुमार, बरेली शहर विधायक और वन एवं पर्यावरण मंत्री, उत्तर प्रदेश
मैं भी विधानसभा में दो बार उठा चुका हूं रबड़ फैक्ट्री का मुद्दा–
“वर्ष 2010 और 2011 में मैं दो बार विधानसभा में रबड़ फैक्ट्री का मुद्दा उठा चुका हूं। मुख्य विपक्षी दल सपा के विधायक की हैसियत से विधानसभा अध्यक्ष के माध्यम से मैंने बहन मायावती के नेतृत्व वाली तत्कालीन बसपा सरकार से जानना चाहा था कि लगभग 11 साल से बंद पड़ी रबड़ फैक्ट्री को दुबारा चलवाने की क्या कोई योजना है?, यदि नहीं, तो रबड़ फैक्ट्री के लिए ली गई माधोपुर, रसूला चौधरी, भिटौरा, कुरतरा, फतेहगंज पश्चिमी, चिटौली, रहपुरा जागीर आदि गांवों के किसानों की जमीनें क्या उन्हें उसी कीमत पर वापस की जाएंगी? लेकिन सरकार ने रबड़ फैक्ट्री का वाद मुंबई हाईकोर्ट में विचाराधीन होने की दलील देते हुए दोनों ही प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया था।-सुल्तान बेग, लगातार तीन बार के विधायक, 39 कांवर और 119, मीरगंज, बरेली।