उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है। कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है। वहीं, टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक भी यह पर्व मनाने की परंपरा है। फूलदेई से एक दिन पहले शाम को बच्चे रिंगाल बांस,भांग के पौधे की रेशे से बनी (ल्वात)की टोकरी लेकर फ्यूंली, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। अगले दिन सुबह नहाकर वह घर-घर जाकर लोगों की सुख-समृद्धि के पारंपरिक गीत गाते हुए देहरियों में फूल बिखेरते हैं। इस अवसर पर कुमाऊं के कुछ स्थानों में देहरियों में ऐपण (पारंपरिक चित्र कला जो जमीन और दीवार पर बनाई जाती है।) बनाने की परंपरा है। अंतिम दिन पूजन किया जाता है। पहाड़ में वसंत के आगमन पर फूलदेई मनाने की परंपरा है। यह त्योहार गढ़वाल और कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। बच्चों से जुड़ा त्योहार होने के चलते इसे खूब पसंद भी किया जाता है।
रोम से हुई वसंत पूजन की शुरुआत
वसंत के पूजन की परंपरा रोम से शुरू हुई थी। रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम ‘फ्लोरा’ था। यह शब्द लैटिन भाषा के फ्लोरिस (फूल) से लिया गया है। वसंत के आगमन पर वहां छह दिन का फ्लोरिया महोत्सव मनाया जाता है। वहां पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह पर्व मनाया जाता है। रोम में फ्लोरा को एक देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, जिसके हाथों में फूलों की टोकरी है। देवी के सिर पर फूलों और पत्तों का ताज होता है। फूलदेई पूरी तरह बच्चों का त्योहार है। इसकी शुरुआत से लेकर अंत तक का जिम्मा बच्चों के पास ही रहता है। इस त्योहार के माध्यम से बच्चों का प्रकृति और समाज के साथ जुड़ाव बढ़ता है। यह हमारी समृद्ध संस्कृति का पर्व है।
आधुनिक जीवन शैली के चलते इस प्रकार के लोक उत्सव,मेले, त्यौहार, परम्पराए धीरे धीरे उत्तराखंड कर समाज से कम हो रहे हैं। जो चिंता कक विषय है। इन परम्पराओ में हमें जीवंतता, प्रकृति के प्रति प्रेम व सामंजस्यता व जीवन मे उत्साह, नयापन मिलता है और संस्कृति की जड़ें गहरे मिट्टी को थामे रखती हैं।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘ नेचुरल ‘ खेती, बेरीनाग, पिथोरागढ़, उत्तराखंड
(लेखक संस्कृतिप्रेमी व सामाजिक सरोकारों से संबंध रखते है व विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं एवं मीडिया से जुड़े है)