Tuesday, June 17, 2025
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Homeराज्यउत्तर प्रदेश...कदम-कदम पर खड़े शिकारी दोनों हाथों जाल लिये!

…कदम-कदम पर खड़े शिकारी दोनों हाथों जाल लिये!

बरेली में प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था साहित्य सुरभि की 375वीं नियमित मासिक काव्य गोष्ठी में कवियों ने बिखेरे चटख रंग

फ्रंट न्यूज नेटवर्क ब्यूरो, बरेली। प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘साहित्य सुरभि’ की 375वीं नियमित मासिक काव्य गोष्ठी रविवार सायं चर्चित रंगकर्मी, उत्कृष्ट साहित्यकार, फिल्मकार, संस्था के वरिष्ठ उपाध्यक्ष सुरेश ठाकुर के राजीव गांधी नगर, मणिनाथ बरेली स्थित आवास पर संपन्न हुई।

इस गोष्ठी की अध्यक्षता रणधीर प्रसाद गौड़ ‘धीर’, मुख्य आतिथ्य हिमांशु श्रोत्रीय ‘निष्पक्ष’ और विशिष्ट आतिथ्य गीतकार कमल सक्सेना ने ग्रहण किया और मंचासीन हुए। काव्यमय सरस-सफल संचालन मनोज दीक्षित ‘टिंकू’ ने किया।

कवि-ग़ज़लकार राज शुक्ल ‘गजलराज’ की सरस्वती वंदना और मंचासीन अतिथियों द्वारा मां वीणापाणि के पूजन से प्रारंभ हुई इस काव्य गोष्ठी में कवियों ने अपनी उत्कृष्ट, सरस और सम-सामायिक रचनाओं द्वारा साहित्य का संवर्धन किया और ‘पितृ दिवस’ पर पिता के महत्व को भी बताया।

प्रतिष्ठित गीतकार-विशिष्ट अतिथि कमल सक्सेना ने जब अंतरतम की गहराइयों में डूबकर यह गीत सस्वर गाया तो सभी कवि-श्रोता झूमते हुए आनंद सागर की गहराइयों में डूबने-उतराने लगे-

राजपथों पर भटक न जाना
ये पूजा का थाल लिये
कदम-कदम पर खड़े शिकारी
दोनों हाथों जाल लिये।

उनका यह गीत भी खूब सराहा गया-
तुम क्या जानो हमको कितनी पीर मिली अभिनन्दन से,
हमने रो-रो रात बिताई संत्रासों के बंधन से।
हमने पग-पग गरल पिए पर खड़े रहे हम चंदन से।

कला की विविध विधाओं में पारंगत ख्यातिलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार और काव्य संध्या के आयोजक सुरेश ठाकुर ने जब अपने इस गीत की सुरीली तान छेड़ी तो सब झूमते हुए पूरे समय वाह-वाह करते रहे-

नियंत्रण दो नयन गति को,
न यूं स्वच्छंद रहने दो,
गिराओ चक्षुपट मृग-लोचनी, दृग बंद रहने दो,
मुझे भय है कहीं इस झील में, न डूब जाऊं मैं,
हृदय करता है मेरा,
आज कोई गीत गाऊं मैं।

मुख्य अतिथि हिमांशु श्रोत्रिय ‘निष्पक्ष’ ने भी अपने गीत से खूब तालियां बटोरीं-

ग़ज़ब का ज्ञान वेदों की पढ़ाई से निकलता है,
जगत में सच सनातन की दुहाई से निकलता है,
कहीं केशव, कहीं शंकर, कहीं देवी निकलता है,
खुदायी का करिश्मा हां खुदाई से निकलता है।

अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि रणधीर गौड़ ‘धीर’ ने जब यह ग़ज़ल तरन्नुम में सुनाई तो सब उनके साथ-साथ गाने और थाप लगाने लगे-
सुकूनो सब्र दिले बेकरार मांगे है,
तिरी नज़र के तबस्सुम से प्यार मांगे है,
सताने वाले हमें खुश रहें ज़माने में,
हमारा दिल ये दुआ बार-बार मांगे है।

उनके इस गीत पर भी पूरा सदन मस्ती, ओज और देशभक्ति के स्वरों में झूमता रहा-

दूर कहीं घातक बारूदी धुंआ उड़ा
तुम पावस की याद दिलाना मत यारों।
शूलों की शैया पर सोना है हमको
तुम कलियों की याद दिलाना मत यारों।
आज गगन में काले बादल छाए हैं
तुम पूनम की याद दिलाना मत यारों।

वरिष्ठ कवि-ग़ज़लकार राज शुक्ल ‘ग़ज़लराज’ ने सस्वर वाणी वंदना के बाद यह ग़ज़ल सुनाकर तालियां और वाहवाही बटोरी-
जाम मांगे सुराही मांगे है,
दर्द अपनी दवाई मांगे है,
कैद कर लो न मुझको जुल्फों में,
कब मुहब्बत रिहाई मांगे है।

मुक्तक सम्राट ठाकुर राम प्रकाश सिंह ‘ओज’ ने भी समाज, परिवार की विद्रूपताओं पर अचूक प्रहार करते और मानवता-सांस्कृतिक आभिजात्य की नई दिशाएं दिखाते अपने बेजोड़ मुक्तकों से सदैव की तरह ही खूब तालियां और वाहवाही बटोरी-

कोई पुत्र पिता के स्वप्नों को खिला देता है,
कुटुम्ब और समाज में इज्जत दिला देता है,
कोई पुत्र पिता को ऐसा भी सिला देता है,
बनी हुई इज्जत भी मिट्टी में मिला देता है।

संस्थाध्यक्ष रामकुमार कोली ने संस्थापक अध्यक्ष गौतम ‘गगन’ की स्मृतियों को नमन करते हुए पितृ दिवस पर यादगार घनाक्षरी सुनाकर प्रशंसा अर्जित की-

परिवार प्रगति में पिता का ही योगदान,
शब्द से न कहे कार्यकृत अवदान है,
होते हैं कपूत पूत सूत भर दें न मान,
पिता देखें पुत्र में ही तो सारा जहान है।

कवि अश्विनी कुमार ‘तन्हा’ ने पितृ दिवस पर पिता को काव्यमय नमन किया। साथ ही यह अविस्मरणीय ग़ज़ल भी प्रस्तुत की-
गांव जब से हमारा शहर सा हुआ,
आदमी सांप-बिच्छू मगर सा हुआ,
लोग करने लगे चौकसी इस तरह,
सांस लेना यहां पर ज़हर सा हुआ।

महासचिव डॉ. राजेश शर्मा ‘ककरैली’ ने माकूल सवाल उठाती और उनके सटीक जवाब तलाशती यह अतुकांत सम-सामयिक कविता पेश कर सामाजिक विद्रूपताओं को बड़ी सुगढ़ता से अनावृत्त किया और सबकी सराहना भी प्राप्त की-

रूढ़ियां-परम्पराएं अपाहिज सी,
जो चलना भी न जानें,
अपनी टूटी पैंजनी का भार भी जो न सह सकें,
उनको तोड़ना ही ठीक है।

वरिष्ठ कवि-पत्रकार गणेश ‘पथिक’ ने अपनी एक चर्चित ग़ज़ल और यह लोकप्रिय प्रेरणा गीत सुनाकर सबकी वाहवाही और तालियां बटोरीं-
आत्मशुद्धि की भट्ठी में तप,
युग परिवर्तन गीत लिखें।
हम बदलेंगे-जग बदलेगा,
ऐसी जीवन रीत लिखें।
सद्कर्मों के दीप जलाकर,
जीवन भर मुस्काएं हम।
व्यंगकार दीप मुखर्जी ‘दीप’ की यह रचना भी खूब सराही गई-

सड़क किनारे डमरू बजाकर
चलते पथिक को
रोक रहा था, कह रहा था
थोड़ा रुक जाओ…मेरी भी सुन जाओ।

ग़ज़लकार राजकुमार अग्रवाल ‘राज़’ ने इस ग़ज़ल के बहाने समाज के समक्ष कई मारक यक्ष प्रश्न उठाए और तालियां बटोरीं-

कर इबादत खुदा से सभी के लिए,
प्यार मां-बाप का बंदगी के लिए,
फिक्र करता न कोई दुखी के लिए,
रख दयाभाव मन में सभी के लिए।

वरिष्ठ कवयित्री सत्यवती सिंह ‘सत्या’ ने तरन्नुम में ग़ज़ल गाकर तालियां बटोरीं-

अब हो सके तो मुझको गले से लगाइए,
जो कुछ हुआ है आप उसे भूल जाइए।
वो बेवफा है ये तो है मालूम सभी को,
अब जानबूझकर कभी धोखा न खाइए।

हिंदी ग़ज़ल के दुष्यंत कुमार के नाम से चर्चित रामकुमार भारद्वाज ‘अफरोज़’ ने अपनी इस सुंदर ग़ज़ल से तालियां और वाहवाह बटोरी-

कहावत को मुनासिब राय समझो,
ग़ज़ल को दर्द का पर्याय समझो,
मदद के तौर पर संवेदनायें,
गरीबों को मिलें तो न्याय समझो।

कवि गोष्ठी का सरस-सफल, काव्यमय संचालन कर रहे मनोज दीक्षित ‘टिंकू’ ने इस कविता से सबका ध्यान खींचा और तालियां भी बजवाईं-

कविता तू न गई मेरे मन से,
तुझसे प्रीत लगाई ऐसी जैसी रामचरन से।
तुझको ध्यान में लाता ‘टिंकू’
मन-क्रम और वचन से।

अंत में संस्थाध्यक्ष रामकुमार कोली, महासचिव डॉ. राजेश शर्मा ‘ककरैली’ और कार्यक्रम के आयोजक सुरेश ठाकुर ने गोष्ठी को सफल-यादगार बनाने के लिए सभी प्रबुद्धजनों का आभार व्यक्त किया।

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