विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी के गांव खिरका जगतपुर में नैमिष पीठाधीश्वर आचार्य अवध किशोर शास्त्री के श्रीमुख से पंचम वेद भागवत कथा की सरस-संगीतमय रसवर्षा
एफएनएन ब्यूरो, बरेली। नैमिष पीठाधीश्वर आचार्य अवध किशोर शास्त्री ने बताया कि भक्तों के भी भक्त, दानवीर और नित्य यज्ञ करने वाले जीव परमेश्वर को सबसे प्रिय होते हैं। आचार्य श्री विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी के ग्राम खिरका जगतपुर में मूलचंद गंगवार और दीनानाथ गंगवार के निवास स्थान पर आयोजित साप्ताहिक संगीतमय श्रीमद्भागवत कथा के पांचवें दिन शुक्रवार सायं भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और परमानंद की अमृतमयी रसवर्षा कर रहे थे। उन्होंने बताया कि जिस भगवान की वजह से हमें यह मानव तन मिला है, दुर्भाग्यवश हम उसी के आनंदमय स्वरूप और अहेतुकी कृपा को विस्मृत कर चुके हैं।

ग्राह-गजेंद्र मुक्ति, दानवीर बलि और भगवान वामन तथा दानवीर कर्ण के प्रेरणादायी प्रसंगों का वर्णन करते हुए आचार्य अवध किशोर ने महिला-पुरुष भक्तजनों को समझाया कि गजेंद्र की पुकार पर नारायण विष्णु ने सुदर्शन चक्र को भेजकर गजेंद्र के साथ ही ग्राह का भी उद्धार किया। श्रीविष्णुु ने गजेंद्र को अपने धाम ले जाने के लिए अपने साथ विमान पर बैठाया जबकि दूसरे वाहन पर ग्राह को बैठाकर गजेंद्र से भी पहले वैकुंठ धाम पहुंचवा दिया। गजेंद्र की आशंका का निवारण करते हुए श्री विष्णु ने उसे समझाया कि मेरे भक्त के चरणों को जो पकड़ लेता है, उसका उद्धार तो भक्त से भी पहले होना सुनिश्चित ही हो जाता है। दानवीर बलि की पावन कथा सुनाते हुए बताया कि सच्चे मन और पूरी श्रद्धा से 100 यज्ञ करने वाला याजक निश्चित ही इंद्रासन का अधिकारी हो जाता है।

दैत्यराज दानवीर बलि याचकों को सर्वस्व दान के संकल्प के साथ जब 99 यज्ञ सफलतापूर्वक पूर्ण कर लेते हैं तो देवराज इंद्र की प्रार्थना पर भगवान विष्णु वामनावतार लेकर बलि के समक्ष ब्राह्मण रूप में प्रकट होते हैं और उनसे तीन पग भूमिदान का संकल्प करवाकर एक पग में ब्रह्म लोक, दूसरे पग में पृथ्वी समेत तीनों लोक नाप लेते हैं। बलि की प्रार्थना पर भगवान विष्णु तीसरा चरण उसके सिर पर रखकर उसे अपने परम भक्त का पद प्रदान कर सदैव के लिए उसके हो जाते हैं।

आचार्य श्री अवध किशोर ने दान की महत्ता बताते हुए कहा कि कर्ण ने अपने प्राणों की चिंता किए बगैर न सिर्फ पांच दैवीय अचूक बाण, अपना अमोघ कवच-कु़ंडल और मरणासन्न स्थिति में भी स्वर्ण मंडित दांत भी तोड़कर दान करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई। उसी का परिणाम यह हुआ कि भगवान कृष्ण ने अपनी हथेली पर अपने परम प्रिय और दानवीर भक्त कर्ण का अपने हाथों से अंतिम संस्कार कर अपने बैकुंठ धाम और अपने हृदय स्थल में उन्हें सर्वोच्च स्थान प्रदान किया।
कथाव्यास ने समझाया कि गृहस्थ आश्रम अन्य तीनों आश्रमों- ब्रह्मचर्य, बाणप्रस्थ और संन्यास से श्रेष्ठ है क्योंकि गृहस्थ अपने पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ ही ज्ञान, वैराग्य और सर्वस्व समर्पण भाव से अतिथियों का सेवा-सत्कार और परमेश्वर का ध्यान, भक्ति भी कर सकता है।
इस भजन पर कथाव्यास के साथ पूरी भक्त मंडली झूमती-गाती रही-

प्रभु हम भी शरणागत हैं स्वीकार करो तो जानें
लाखों पतितों को तारा हमको तारो तो जानें।।
माता धारा का प्रसंग सुनाते हुए बताया कि भगवान भक्त से कुछ चाहते नहीं हैं केवल उसके समर्पण, धैर्य और भक्ति भाव की परीक्षा लेते हैं। बताया-माता धारा संतों को भोजन कराने के लिए कामवासना से ग्रस्त पड़ोसी से अन्नदान मांगने गई तो कामुक ने उसके स्तनों को स्पर्श कर लिया। उन्होंने अपने स्तन छुरे से काटकर उसे दे दिया। भगवान के वरदान से वही धरा द्वापर युग में यशोदा मैया और विष्णु कन्हैया के रूप में उनके घर में प्रकट हुए और पुत्र बनकर महत्व और वात्सल्य सुख प्रदान किया। इससे पहले चौथे दिन गुरुवार रात्रि दुर्गा माता और सांसारिक मायाजाल में फंसे उनके एक अनन्य भक्त की करुण पुकार की सजीव भव्य मार्मिक झांकी भी सजाई गई।