कंचन वर्मा, रुद्रपुर : लोहिया मार्केट से उजाड़े गए व्यापारी आज खाली हाथ हैं, न तो उनके पास कोई विकल्प है और न ही जनप्रतिनिधियों का साथ। ऐसे में सवाल उठता है कि व्यापार मंडल राजनीति के किस मुहाने पर खड़ा है ? व्यापारी हितों के लिए इस संगठन की लड़ाई निजी राजनीतिक स्वार्थों के लिए है या फिर यह अपना अस्तित्व खोता जा रहा है ? व्यापार मंडल की बनती सत्ताधारी राजनीतिक छवि संगठन को कितना फायदा पहुंचाने वाली है, इस पर भी विचार की जरूरत है।
व्यापार मंडल गैर राजनीतिक संगठन कहा जाता है लेकिन रुद्रपुर में यह बात बेईमानी साबित हो रही है। एक संगठन पूर्व में ही सत्ता के रिमोट से संचालित होता आ रहा है, और अब दूसरा भी इसी राह पर है। इस संगठन की कांग्रेस से नज़दीकियां भी किसी से छिपी नहीं हैं। रोडवेज के सामने से उजाडे गए व्यापारियों की लड़ाई में भी इस संगठन के मुखिया के सिले ओंठ बहुत कुछ कह रहे हैं। बंद कमरे में उनकी एक जनप्रतिनिधि से वार्ता किसी से छिपी नहीं है। इसके बाद से ही इस मामले को ठंडा किया जा रहा है। आग पर पानी डालने की खामोश राजनीतिक कोशिशें चल रही हैं। हल्के से गेंद पहले सांसद और फिर मुख्यमंत्री की ओर सरका दी गई है।
खास बात यह है कि इन दोनों की चौखट पर पहुंचे व्यापारियों के साथ स्थानीय जनप्रतिनिधि गायब थे, हालांकि अब यह भी बहाना नहीं बनाया जा सकता कि विधानसभा सत्र चल रहा था… !!! लेकिन एक बात तो तय है पीड़ित व्यापारियों की लड़ाई को आसानी से चरम पर पहुंचा दिया गया, प्रदेश में मुख्यमंत्री की चौखट ही अंतिम विकल्प है तो कहेंगे कि बड़ी आसानी से अपने कंधो से जिम्मेदारी दूसरी जगह शिफ्ट कर दी गई।
इस पूरे सियासी गुणा गणित में व्यापार मंडल मौन नजर आया। विपक्षियों को किनारे कर रफ्ता रफ्ता व्यापारियों के दिलों में लगी आग पर पानी डालने की कोशिश चलती रही। माना जा रहा है कि व्यापारियों को उजाड़े जाने जाने से पहले विकल्प को नकार देना भी साजिश का हिस्सा है।
इस प्रयास में व्यापार मंडल और स्थानीय सत्ताधारी नेताओं की जुगलबंदी काम भी आई। आज लुटा-पिटा व्यापारी असहाय है- परेशान है। लेकिन मुंह पर कुछ और और पीछे कुछ और दिखने वाले नेता अपने मकसद में कामयाब हो चुके हैं। व्यापारियों के पास आज नेतृत्व का अभाव है, या फिर यूं कहें कि नेतृत्व पूरी तरह से व्यापारियों को ठग चुका है। एक सवाल यह भी है कि अब नंबर काशीपुर बायपास के व्यापारियों का है ! तो व्यापार मंडल क्या इसी जुगलबंदी और सियासी रणनीति में शामिल होकर दुकानों पर पटरा चलवाने का काम करेगा ? क्या इसी तरह व्यापारियों की आवाज बनकर रह जाएगी ? क्या इसी तरह उनका व्यापार और परिवार सड़क पर आ जाएंगे ?
आम आदमी भी इस बात से इत्तेफाक रखता है कि अतिक्रमण हटाना चाहिए लेकिन पहले विकल्प और वैकल्पिक व्यवस्था की बात होनी चाहिए, लेकिन आज का परिदृश्य देखने से नहीं लगता कि व्यापार मंडल और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को व्यापारी हितों से कोई लेना-देना है। क्रमश: