- खिड़की-दरवाजे निकाल ले गये चोर-स्मैकिये, राष्ट्रीय पक्षी मोर शिकारियों के टार्गेट पर
गणेश पथिक, मीरगंज (बरेली) : शासन-प्रशासन और आमजन की घनघोर अनदेखी की बानगी देखनी हो तो दुनका में ब्रिटिश हुकूमत में लाखों की लागत से बनी चार आलीशान कोठियों की बदहाली पर बस एक निगाह भर डाल दीजिये जनाब; बेशकीमती ऐतिहासिक धरोहरों की इतनी बेकदरी पर आप सब की आंखें नम और दिल बोझिल न हो जाय तो कहना। आलम यह है कि 100 साल से भी ज्यादा पुरानी ये चारों इमारतें मरम्मत तक न हो पाने से तेजी से ज़मींदोज़ हो रही हैं। चोरों-स्मैकियो ने खिड़कियां-दरवाजे, लोहा-लकड़ी चुरा-चुराकर इमारतों को खोखला ही कर डाला है और बड़ी बेशर्मी-बेदर्दी से प्राकृतिक सौंदर्य से लवरेज इस आलीशान पर्यटन केंद्र का अस्तित्व ही मिटाने पर तुले हैं।
बता दें कि ब्रिटिश हुक्मरानों ने तकरीबन 116 साल पहले वर्ष 1904 में दुनका से एक किमी दूर सुल्तानपुरी गांव के पास तफरीह और प्रशासनिक कारणों से लाखों की लागत से चार आलीशान कोठियां बनवाई थीं। सैकड़ों कारीगरों की कई साल की बेमिसाल हुनरमंदी की शाहकार दो हैक्टेयर से भी ज्यादा रकबे में फैली ये चारों इमारतों की खंडहरनुमा दरो-दीवारों पर मुल्क की आजादी से पहले तक के ब्रिटिश हुक्काम के रसूख और गरीब-लाचार रियाया-काश्तकारों पर उनकी हर दयानतदारी और जुल्मो-सितम के तमाम किस्से-कहानियाँ पेवस्त हैं।
अंग्रेज फौजियों का ठिकाना था यहां, लगान भी वसूलते थे
सुर्खी-चूना की एक मीटर चौड़ी दीवारें मजबूती की मिसाल हैं। फौजी रेजिमेंट यहां अक्सर डेरा डाले रहती थीं। दुनका के 82 साल के बुजुर्ग लाखनराम, सुल्तानपुर के 70 साल के गंगासिंह की मानें तो इन दोनों ने अपनी पूरी जिंदगी में एक बार भी इन आलीशान ऐतिहासिक धरोहरों की मरम्मत होते नहीं देखी है। जीर्णोद्धार हो जाय तो प्राकृतिक सौंदर्य से लवरेज इस आलीशान स्थल को बड़े पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की अपार संभावनाएं हैं। वसई के 80 वर्षीय रघुनंदन प्रसाद बताते हैं कि एक कोठी अंग्रेज अफसरों की आरामगाह थी तो दूसरी उनके मातहतों की रिहाइश। तीसरी सैकड़ों घोड़ों के अस्तबल और चौथी विशाल सामूहिक रसोईघर के रूप में इस्तेमाल होती थी। घुड़सवार अंग्रेज फौजी, पुलिस अफसर इलाके में घोड़ों पर सवार होकर काश्तकारों से लगान वसूलते थे। आजादी के बाद ये विशालकाय कोठियां नहर (सिंचाई) विभाग के कब्जे में आ गईं। लगभग 40 साल तक नहर विभाग के जिलेदार और दीगर अफसर यहीं आकर किसानों की फरियाद सुनते थे। एसडीएम बहेड़ी भी पखवाड़े में एक बार यहाँ आकर मुकदमे निपटाते थे। 1986 में यह कोठियां नहर से वन विभाग को हस्तांतरित कर दी गईं लेकिन अनदेखी का आलम बदस्तूर जारी रहा। लापरवाही के चलते चोर-स्मैकिये लाखों रुपये लागत के खिड़की-दरवाजे, चौखटें उखाड़कर खुर्द-बुर्द कर चुके हैं और आलीशान इमारतें खंडहर की शक्ल लेकर तेजी से अस्तित्व खो रही हैं।
राष्ट्रीय पक्षी मोर शिकारियों के टार्गेट पर
कोठियों के आसपास दो हैक्टेयर इलाके में सघन वन फैला है। आम, पीपल, शीशम, जामुन, पापुलर, बकायन, अर्जुन के सैकड़ों पेड़ हैं। दर्जन भर से अधिक मोर और हजारों कबूतर, तोते, गिलगिलियां और तमाम दीगर परिंदे इसे खूबसूरत पर्यटक स्थल की शक्ल दे रहे हैं । राष्ट्रीय पक्षी मोर शिकारियों के टार्गेट पर हैं। कई मोरों को शिकारी मारकर खा भी चुके हैं। सुल्तानपुर के समाजसेवी ओमकार सिंह चौहान बताते हैं कि आसपास आबादी बढ़ने से राष्ट्रीय पक्षी मोर का शिकार करने के ट्रेंड पर कुछ अंकुश जरूर लगा है।
रात में लावारिस रहती हैं कोठियां
वन विभाग ने यहां अपनी पौधशाला (नर्सरी) बना रखी है। लेकिन अफसर कभी कभार ही आते हैं । इकलौता विभागीय कर्मचारी माली कल्यान शाम ढलते ही अपने घर का रुख कर लेता है। आम जनता की मानें तो क्षेत्रीय विधायक और प्रशासन की संयुक्त पहल से इस ब्रिटिशकालीन ऐतिहासिक धरोहर का जीर्णोद्धार करके सुरम्य पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है।
घंटियां बजती रहीं, नहीं उठे विधायक, एसडीएम के फोन
इस पूरे मसले पर क्षेत्रीय भाजपा विधायक डा. डीसी वर्मा और एसडीएम मीरगंज ममता मालवीय से फोन पर बात कर इन दोनों का रुख जानने की बहुतेरे कोशिश की लेकिन किसी बात ही नहीं हो पाई। घंटियां बजती रहीं लेकिन फोन उठाये ही नहीं गये। विधायक ने भी व्यस्तता का हवाला देकर फोन काट दिया।