
खेमाबंदी से दूर पांच दशकों से अनवरत चल रही है डॉ. मधुकर की मौन किंतु गुरुगंभीर साहित्य साधना, किंतु नहीं हो पाई कृतित्व की निष्पक्ष समालोचना-समीक्षा
फ्रंट न्यूज नेटवर्क ब्यूरो, बरेली। विगत पांच दशकों से भी अधिक समय से साहित्य की मौन-तटस्थ किंतु गुरुगंभीर अनवरत साधना में निरत डॉ. महेश मधुकर रुहेलखंड क्षेत्र के निश्चित ही ऐसे समर्थ कवि हैं जिनकी संदेशपूर्ण, सोद्देश्य लेखनी विभिन्न विधाओं में पूर्ण प्रवाह के साथ निरंतर चलती ही रही है और बरेली, आसपास इलाके में ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश समेत देश के विभिन्न प्रांतों और राष्ट्र की सीमाओं के पार नेपाल तक अपने लिखित और मंची़य विशिष्ट कवित्व का डंका बजवा चुकी है। दो खंड काव्यों ‘धरा सुता का त्याग’ और ‘एकलव्य’ तथा बालगीत संग्रह ‘भारत की पहचान तिरंगा’ जैसी उत्कृष्ट काव्य कृतियों के प्रकाशन के उपरांत पिछले वर्ष उनका 56 स्मरणीय गीतों का नया गीतिकाव्य संग्रह ‘अंजुरी भर धूप’ रवीना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होकर आया है। मेरी दृष्टि में सुकवि डॉ. मधुकर का यह अप्रतिम गीत संग्रह अपने अनूठे वाग्वैग्ध्य, सहज-सरल शब्द विन्यास, अनूठी भाव संप्रेषणीयता, गजब की गेयता और छंदशास्त्र की सभी कसौटियों पर पूर्णतः खरा उतरने का उनका विनम्र सफल-सार्थक-सारस्वत प्रयास है और अपने इन्हीं गुणों के कारण समालोचना शास्त्रियों और गीति काव्य प्रेमियों के मध्य चर्चा का विषय बना हुआ है।

कवि निश्छल-निस्वार्थ प्रेम, अटूट आशा-आस्था, सनातन संस्कारों की पावन धूप को अपनी छोटी सी अंजुरी में भर लेने को आतुर है। विरहानल में दग्ध कवि की छटपटाहट देखते ही बनती है-
नदिया के तीर गए होंठों पर प्यास लिए,
उन्मादी सुधियों ने हर पल संत्रास दिए,
हो न सका मीत से मिलन-
अंजुरी भर धूप के लिए।
गीतकार की भावाभिव्यक्ति तब और भी हृदयस्पर्शी और सर्वस्वीकार्य हो उठती है, जब भावावेश में वह गुनगुनाता है-
हमने उस पीड़ा के अनगिन,
गीत सुबह अरु शाम लिखे;
हृदय पृष्ठ पर प्रियवर हमने
राधे-राधे श्याम लिखे।
और…भाव विह्वल कवि का यह प्रश्न भी हर प्रेमी के मन में कभी न कभी उठता तो अवश्य ही है-
क्रौंच सा आहत हुआ मन,
कर रहा है रुदन।
नयन से आंसू झरे कितने?
मीत! क्यों निष्ठुर हुए इतने?
आशा ही नहीं, विश्वास भी है कि इस संग्रह के अनेक गीत भविष्य में हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि की मान्यता और प्रसिद्धि अवश्य ही प्राप्त करेंगे-
तुम रूठीं तो जग रूठ गया,
मेरा जीवनक्रम टूट गया।
असहाय देखता रहा खड़ा,
दुर्भाग्य मुझे तो लूट गया।
कवि का निश्छल नायक पूर्ण आत्म विश्वास से भरकर गाता है-
वेद ऋचाओं से पावन हो, मनभावन मेरे।
रोम-रोम में भरे मधुरता,
घन सावन मेरे।
कवि की यह स्वीकारोक्ति भी सहज-निस्वार्थ प्रेम की सरस-सशक्त व्यंजना शक्ति का अनुपम उदाहरण बन पड़ी है। मधुकर का यह ‘गीत गरल’ निश्चित ही काव्य प्रेमियों के गले का अमृतमय कंठहार बनकर विभूषित होने की सामर्थ्य रखता है-
मैं विषधर ही सही न लेकिन खोज सका चंदन।
मुझ प्यासे का पनघट कब,
सुन पाया है क्रंदन?
हृदय सिंधु मंथन से निकला,
मधुकर गीत गरल-सा।
मैं तो आवारा बादल सा,
मैं तो आवारा बादल सा।।
कवि स्वर्गिक आनंद में रचे-बसे प्रेम के मधुर पलों को किस तरह गूंथता-संवारता है…देखिए-
गांव किनारे बरगद बाबा,
साक्षी अपने प्यार के,
लुका-छिपी, रूठना-मनाना, आभूषण मनुहार के।
नदी किनारे महल रेत के,
रहे बनाते हम दोनों,
गाते रहे गीत मिल दोनों,
सावन और मल्हार के।

एक कटु तथ्य अत्यधिक दुख और वेदना के साथ उद्घाटित करना पड़ रहा है कि कवि मधुकर की पचास से भी ज्यादा वर्षों की गंभीर साहित्य साधना का समालोचना जगत में वैसा स्वागत और उतनी स्वीकार्यता अभी भी शेष ही है, जिसका डॉ. मधुकर स्वाभाविक रूप से अधिकार रखते हैं। उनकी ‘कविर्मनीषी परिभू-स्वयंभू दृष्टि’ संयोग-वियोग के निश्छल निस्वार्थ प्रेम से लेकर अनूठी राष्ट्रभक्ति, परिवार और समाज के बीच अटूट विश्वास-आस्था, संस्कारों का जयघोष करती आई है। साथ ही वंचितों, निरंकुश राजशक्ति से छले गए लोगों (एकलव्य) तथा अपनों के हाथों ही सताई गई मातृशक्ति (धरा सुता का त्याग) की निडर-सशक्त आवाज़ और उसके अमोघ सामर्थ्य की हुंकार-टंकार बनकर भी निरंतर फूटती रही है।
गीतकार गाता है तो प्रेमियों को प्रेम का सहज-किंतु दुस्साध्य व्याकरण भी समझाता चलता है-
सौंपकर अमृत-कलश प्रियवर तुम्हें,
स्वयं विष पीता रहा हो मगन- सा।
धड़कनों-सी तुम हमारे पास पर,
हो गया हूं दूर तुमसे गगन-सा।
वियोग श्रृंगार को सहज-रससिक्त अभिव्यक्ति देते हुए कवि गाता है-
मैं नीरहीन रीते घट-सा,
सहता आया हूं अकुलाहट,
तुम बहती नदि-सी दूर हुईं,
रह गया निपट मैं सूना तट।
डॉ. मधुकर के इस संग्रह का एक और गीत प्रेम की ताजगी- बानगी कुछ इस तरह बखानता है-
हो सुमन तुम अर्चना के,
मैं चरन की धूर हूं।
तुम मिलन में हो प्रफुल्लित,
मैं प्रणय से दूर हूं।
इस संग्रह में दो दोहा गीत भी हैं। कवि ने हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल माने जाने वाले भक्तिकाल और रीतिकाल के ‘गागर में सागर’ भरने वाले सर्वाधिक लोकप्रिय दोहा छंद शैली में प्रणय गीत रचे हैं जो प्रेमियों और काव्य रसिकों-संभवत: दोनों के ही कंठहार बन सकेंगे-
मौन निमंत्रण नेह का, पढ़ लेते हैं नैन।
एक-दूसरे से मिलन, को होते बेचैन।।
पलकें नत होकर करें, प्रियवर का सम्मान।
लगीं चलाने गोरियां, तब तक-तक कर बान।।

कवि मधुकर की विशेषता है कि वे जब बालगीत गाते हैं तो बच्चों के बीच भोले-निष्कलुष, शरारती-नटखट बालक ही बन जाते हैं। ऐसा बालक, जो अपनी बचकानी शरारतों के बीच जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, प्रकृति का स्वाभाविक दोस्ती रखता है और संस्कारों की डोर से खुद को मजबूती से बांधे भी रखता है। (भारत की पहचान तिरंगा-बालगीत संग्रह)। श्रृंगार और प्रेम के गीतों के साथ ही डॉ. मधुकर की कलम राष्ट्रभक्ति, सड़ी-गली व्यवस्था, आतंकवाद, भूख-अभावों-भ्रष्टाचार, राजनीतिक विचलन तथा सर्वहारा श्रमिक वर्ग की चिंताओं जैसे विषयों पर भी बेधड़क चली है-
अक्षर-अक्षर हुई व्यवस्था,
शब्द हुए छल-छद्म सकल।
दुर्भावों के वाक्य बने हैं,
सद्भावों ने पिया गरल।
और यह भी-
देश मेरे! हम तुम्हें फिर से वही मुस्कान देंगे।
विश्वगुरु पद पर प्रतिष्ठित, कर पुन: पहचान देंगे।
इस संग्रह के एक गीत का यह बिम्ब भी अत्यधिक हृदयग्राही बन पड़ा है-
दुधमुंही बच्ची किनारे से पड़ी थी।
और माता बोझ ले सीढ़ी चढ़ी थी।
हांफता बूढ़ा खुदाई कर रहा था।
थक न जाएं हाथ, मन में डर रहा था।
कर रही थी भूख अंदर से इशारे।
जिंदगी निशि-दिन अभावों में गुजारे।।
ढाई आखर की परिभाषा गीत भी अपनी गेयता, भावप्रवणता, छंदबद्धता और शब्द विन्यास जैसे गुणों के कारण इस संग्रह के चंद सर्वग्राह्य, सर्वस्वीकार्य गीतों में एक बन पड़ा है-
प्रेम भाव से जन-जन के,
मन में विश्वास जगाता चल।
ढाई आखर की परिभाषा, जन-जन को बतलाता चल।
अंत में, निष्कर्ष स्वरूप हम यह कह सकते हैं कि तीनों अन्य काव्य ग्रंथों की तरह ही डॉ. मधुकर का यह चौथा काव्य ग्रंथ ‘अंजुरी भर धूप’ भी उनके उत्कृष्ट गीतों के संग्रह के रूप में काव्य प्रेमियों की प्रशंसा और लोकप्रियता बटोर रहा है। डॉ. मधुकर अपने प्रकाशित-अप्रकाशित प्रचुर उत्कृष्ट साहित्य के बलबूते देश-विदेश में काव्य मंचों पर प्रशंसित और सम्मानित-अभिनंदित तो होते ही रहे हैं; उम्मीद की जानी चाहिए कि देर-सवेर आलोचकों-समीक्षकों का ध्यान भी खेमाबंदी से दूर अपने स्तरीय साहित्य की बदौलत खींच ही लेंगे। साहित्य प्रेमियों को डॉ. मधुकर से उनके उत्तम स्वास्थ्य के साथ दीर्घजीवी होने तथा और भी अधिक गुणवत्तापूर्ण साहित्य सृजन एवं बड़े सम्मानों की आशाएं-अपेक्षाएं हैं। मां वीणापाणि के लाड़ले-वरद् पुत्र डॉ. मधुकर की समर्थ लेखनी से निस्संदेह ही अभी तो ढेर सारा काव्य-साहित्य आना बाकी है।

समीक्षक-गणेश ‘पथिक’
अंजुरी भर धूप-गीत संग्रह
रचयिता-डॉ. महेश ‘मधुकर’
प्रकाशक-रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली।
प्रकाशन वर्ष-2024
पृष्ठ संख्या-80
मूल्य-₹350/-
(विश्वप्रसिद्ध ऑनलाइन प्लेटफॉर्म AMAZON पर देश-विदेश में बिक्री के लिए उपलब्ध)

